Monday 26 September 2011

अर्पण



दिल में चिर जुदाई की पीडा
दिमाग में यादों की बदली छाई है
आज सभी घनीभूत होकर
फिर से बरसने आई है।
नैनों के नीर
दिल के पीर
श्रद्धा औ स्नेह से बनाये गये खीर
बाबुल मैं अर्पण करती हूँ
अपने सारे मृदृल भावों का
इस पावन दिवस पर
तर्पण करती हूँ।
बडे ही सुखमय दिन थै वो
स्वर्ग था तेरी बाँहों में
दिल सुकून से भरा रहता था
तेरी ममता की छाँहों में
आवागमन के साधन नही हैं
पर-दम है मेरे भावों में
बिना टिकट के बिना पते के
ये पहूँच जायेंगे
तेरे गाँवों में।

Sunday 25 September 2011

बिटिया


निशा अपने रौ में चली जा रही थी
अपनी भावनाओं में बही जा रही थी
पीछे से दौडते-हाँपते
चाँद-तारों औ-
दसों दिशाओं ने -
आवाज लगाई- रुको,सुनो-
हमारा फैसला करके जाओ
बताओ-हम सब में
सबसे सुन्दर-सबसे अच्छा औ
सबसे चंचल कौन है ?
निशा कुछ देर के लिये रुकी
उनकी ओर झुकी और बोली
सुनो दोस्तों-गर तुम मुझसे
फैसला करवाना ही चाहते हो
मेरा राज मुझसे उगलवाना ही चाहते हो तो सुनो-
तुम सबने अपना नाम तो बताया पर-
इसमें एक नाम जोडना भूल गये
बेशक, तुम सभी अच्छे,सुन्दर औ चंचल हो पर-
बुरा मत मानना यारों
अभी प्रथम नही आने की
तुम्हारी बारी है क्योंकि-
सबसे अच्छी,सबसे सुन्दर औ
सबसे चंचल बिटिया हमारी है
जिसने दी है मेरे जीवन को
एक अपूर्व दिशा
वो है मेरे दिल की धडकन
मेरी बिटिया ईशा
कुछ देर के लिये सभी सकपकाये पर-
भावनाओं के प्रबल वेग को
रोक नही पाये कहा-
हम सभी गर्वमिश्रित झोकों में झूल गये
अपने को याद रक्खा
पर -अपनी बिटिया को कैसे भूल गये
सच ही तो है
बिटिया माँ-बाप के जीवन की
धारा होती है
उनके आँखों में बसनेवाली
सुनहरी तारा होती है।
डाँटर्स डे पर सारी बेटियों के लिये समर्पित है मेरी ये रचना।

Wednesday 21 September 2011

पूँजी


धन चला जाये तो जाने दो
दुःख का कडवा घूँट नही पीना
स्वास्थ्य जरुरी है सीखो
मुस्कुरा के जीना
चरित्र जीवन की पूँजी है
इसे कभी नही गँवाना
पहले गलती करके
पीछे पड ना जाये पछताना
मृगतृष्णा के जाल में फँसकर
अपने सम्मान को नही खोना
आज-अभी-क्षणिक -सुख के लिये
आनेवाले कल को दाँव ? पर
नही लगाना
रोते हुये जग में आये हैं
हँसते हुये जग से जाना।

Friday 16 September 2011

लोग


सही बातों का गलत मतलब लगा लेते हैं लोग
गिरगिट की तरह रंग बदल लेते हैं लोग
अपने हिस्से की खुशी लेकर भी संतुष्ट नहीं
दूसरों के हिस्से की खुशी झपट लेते हैं लोग
संबंध नही निभाना हो गर तो ?
संबंधों पे प्रश्नचिन्ह लगा देते है लोग
खुद को आका साबित करने के लिये
बेगुनाहों और मासुमों का कत्ल करवा देते हैं लोग ।

Wednesday 14 September 2011

हिन्दी दिवस


हिन्दी तन हो
हिन्दी मन हो
हिन्दी मान हो
हिन्दी सम्मान हो
हिन्दी में व्यक्त करें
हम अपनी सारी भावनायें
आज हिन्दी दिवस पर
आपको मेरी तरफ से भी
ढेर सारी शुभकामनायें।

Saturday 10 September 2011

कीमत


जो होता है
अच्छा होता है
जो खोता है
वही रोता है
जो खोयेगा ही नही तो ?
रोने की कीमत समझेगा कैसे ?
जो टूटेगा ही नही तो ?
जुडने की कीमत समझेगा कैसे
उदासी की जब नही पडी तो ?
मुस्कान की कीमत क्या वो समझे ?
दिल से नही जुडा है जो
अपनेपन की कीमत क्या वो समझे ?
मान नही मिला हो जिसको
अपमान की कीमत क्या वो समझे ?

Friday 9 September 2011

उसकी यादें



मेरी बिखरी-बिखरी सी यादें
मुझे छोडकर तुम
कहीं और चली जाओ
मेरे लौहखंड से बने
इरादों को यूँ कमजोर न बनाओ
दुनियाँ से जाने के पहले
बहुत कार्य है निबटाने को
क्या मैं हीं हूँ इकलौती ?
अपना अस्तित्व मिटाने को ?
जब कोई मेरी परवाह नहीं करता ?
तो ? मैं क्यों करुँ किसी की परवाह ?
क्यों निकालूँ किसी के लिये
दिल से कोई आह ?
अच्छा होगा


बेदर्दों से दूर रहकर
मैं अकेली ही चलती चली जाऊँ
अपनी मर्जी से रोऊँ या गाऊँ
तुमको तो पता है ?
आत्मा तक पहुँचने का
दिल है एकमात्र रास्ता
पर ? जो दिल से नहीं जुडा है
उसका मुझसे क्या वास्ता ?
अच्छा यही होगा
तुम मुझे उसकी याद न दिलाओ
जैसे उसने भूला दिया मुझे
वैसे मुझसे उसकी यादें भी ले जाओ ।


Monday 5 September 2011

माँ


माँ-मैं खग थी
तुम थीं मेरी दोनों डैने
तुम जैसी माँ पाकर
जीत लिया जग मैने
बिना मिले तुम चलीं गईं
मजबूरियों पर रोती हूँ
सपनों में आकर मिल लेती हो
जब भी मैं दुःखी होती हूँ
साथ तुम्हारा छूटा जबसे
द;खों के झोकों में
झूल गई
तेरे बिन माँ मैं अपने
घर का रास्ता भूल गई।

गुरु


गुरु केन्द्र है ग्यान का
करे व्यक्तित्व निर्माण
गुरु की महिमा का न कोई
कर सकता बखान
गुरु है तो राष्ट्र है
गुरु बिना सब सुन
गुरु बिना न मुक्ति मिले
इन्हें सोच-समझकर चुन।

प्यार क्या होता है?


कल पर विश्वास नही होता तो ?
आज नही होता
प्यार कभी दूरियों का
मोहताज़ नही होता
किसने जाना ? किसने समझा ?
प्यार क्या होता है ? बिना दिये कुछ ?
मिले हमेशा प्यार वही होता है।
नेह का नाता उम्र भर साथ निभाता है
देह का नाता हमेशा धोखा दे जाता है
वासना,व्यभिचार औ रिश्तों के व्यापार से
झूठ, फरेब औ बनावटी व्यवहार से
मुक्त होता है प्यार।
प्यार की कोई परिभाषा ?
कोई सीमा नही होती
ये दिल का चैन औ
नैनों की है ज्योति।

Thursday 1 September 2011

ऐसी खुशियाँ कब माँगी थी ?


जीना-मरना एक समान हो
रोने-गाने में भेद नही हो
जीवन का मँझधार जहाँ हो
डुबी नाव पतवार नही हो
माँझी भी अड-अडकर जहाँ पर
बनते हों अभिमानी
सच बता दो मुझको भगवन
ऐसी खुशियाँ कब माँगी थी ?

जीवन का अस्तित्व मिटाया
अरमानों का गला दबाया
बनी समर्पण की ही छाया
तब सुख का दिन था ये  आया
सुखमय भरे दिनों मे भला
बन बैठा कौन वरदानी ?
वर देने के बदले डँस रहा सुख को
ऐसी खुशियाँ कब माँगी  थी ?


पीर बन गया पर्वत अब तो
बरगद सी व्याथायें
सिसक- सिसक कर मन भी
अब तो ,कहता करुण कथायें
भूलना चाहूँ भूल न पाऊँ
किसकी है ? मनमानी
एक पल अब तो एक युग लगता
ऐसी खुशियाँ कब माँगी थी ?


दुख के दिन हैं कट जायेंगे
गम के बादल छँट  जायेंगे
दूर करुँगी दुःख-दर्दों को
अपनी त्याग-तपस्या से
नहीं डरूँगी-नही हारुँगी
ऐसी हूँ स्वाभिमानी
पा लूँगी उन खुशियों को भगवन
जैसी तुम से है माँगी।

तीनों पागल है


ये घटना १९८७ या १९८८ की है।लगातार बारिश हो रही थी।
मेरे गाँव रसलपुर,नौगछिया,भागलपुर के लोग आश्वत थे कि
इस बार बाढ नही आयेगी क्योंकि सामान्यतः बाढ तब
आती थी जब नेपाल के किसी बाँध का फाटक खोला
जाता था, ऐसा ही हमारे बडे-बुजुर्ग कहते थै। पर उस
समय शायद कुछ नये बाँध और बनाये गये थे। अतः
सभी निश्चित थै।उनमें मेरे पिताजी स्वर्गिय श्री रघुवीर यादव
एवं मेरे जीजाजी श्री रणविजय कुमार भी शामिल थै।
जिन्हे विश्वास था कि बाढ नही आयेगी।
पर मैं, मेरी माँ स्वर्गिय तिलेश्वरी देवी एवं मेरी दीदी
श्रीमति शांति सिन्हा ने उनके मना करने के बाबजूद
घर का सामान व्यवस्थित करना शुरु कर दिया था।
हम तीनों रात भर जग सामान जमाते रहे।पलंग,चौकी,
अलमारी,टेबल सभी को पाँच ईटों पर रखा क्योंकि
खिडकी के आर-पार बहता था।घर का सामान जमाने के
बाद हमने भूसा घर की ओर रूख किया
तब सुबह के पाँच बज गये थै। मैंने सुना-जीजाजी, पिताजी
से कह रहे थै-ये तीनों रात भर से जग कर सामान जमा
रही हैं।पिताजी बोले-एक पागल हो तो उसे समझाया
जा सकता है।यहाँ तो तीनों पागल है।अचानक पानी गिरने
की आवाज आई और देखते-देखते खेतों से बहता हुआ हमारे
घर मै घुस गया।अब हमारे होंठों पर विजयी मुस्कान खेल
रही थी।पिताजी और जीजाजी भी मुस्कुराते हुये बोल
रहे थे कि अच्छा हुआ जो तुमने हमारी बात नही मानी।
बाढ आने बाद हम अंबिका चाचा के यहाँ रहने चले जाते थै।
बडा मजा आता था। सभी मिलजुल कर रहते थै।
तकरीबन बारह परिवार होते थै।आज भी वो सारी
बातें मेरे मानस पटल पर अंकित है।पर अब न तो वे लोग
रहे न हीं पहलेवाला वो अपनत्व।इस बात का दु;ख अवश्य है।