Friday 29 July 2011

साथी


अमावस की रात थी
निशा बहुत उदास थी
न कोई संग न कोई सहारा
कैसे कटेगा ये सफर हमारा
बीते दिनों की यादें
उसके अकेलेपन को सहला रहा था
उसका मन उसके दिल को
भरोसे की लौ से बहला रहा था
तभी उम्मीद की एक
किरण चमकी
निशा ने उस दिशा को
गौर से निहारा
स्याह पगडंडियों के ऊपर उसे
दिखाई पडा आसमान में
चमकता एक तारा
नज़रों से नज़र मिलते हीं
नन्हा सा दिल खिल उठा
सुहाने सफर का साथी जो
उसको मिल गया।

Sunday 24 July 2011

अंतर


मैंने हमेशा चाहा कि
तुमको कुछ अच्छा दे सकूँ
कभी तुम्हारा दिल न दुखाऊँ
जितना हो सके तुम्हारे गम को कमकर
तुम्हरे जीवन मे खुशियाँ बिखराऊँ
पर,पता नहीं क्यों ?कब ? कैसे ?
समय करवट बदल लेता है
तुम वो नही समझते
जो मैं तुम्हे समझाना चाहती हूँ
तुम वो नहीं सुनते जो मैं सुनाना चाहती हूँ

जब दिल उदास होता है
मैं उसे दिलासा देती हूँ
आज नही तो कल आयेंगे वो पल
जब तुम मेरी बातों के
सकारात्मक पक्ष को समझोगे
करोगे मुझपर विश्वास
क्योकि आशा औ विश्वास ही
इंसान की पहचान है औ
जीवन का दूसरा नाम ही महासंग्राम है
मैं बस इतना ही चाहती थी
कि जीवन की राह में न लगे
तुम्हे कोई ठोकर पर
मैं अब समझ गई
कि तुम्हारी समझ में
सारी बातें आ जायेंगी
इक दिन मुझे खोकर

उस दिन तुम कोई
अपराधबोध मत पालना
न रोना , रोना किसी अभाव का
क्योंकि न तुम गलत थे
न मैं गलत थी
अंतर था सिर्फ मनोभाव का ।

Thursday 21 July 2011

घूम आओ



जीवन की एकरसता से गर
मुक्ति पाना हो
उत्साह और उमंग को
जीवन का अंग बनाना हो
जोश किसको कहते है औ
कैसा है गंगा का बंधनयुक्त
उन्मुक्त मस्त विहार
देखना चाहते हो तो
घूम आओ हरिद्वार।

गंगा की इठलाती,लहराती औ बलखाती
जल की तरंगें हमें
जीने का राह दिखाती है
जीना किसको कहते हैं
बिना बोले सिखलाती है
दिल औ दिमाग दोनों को
ठंढक पहुँचाये ऐसी
करिश्माई है इसकी फुहार
महसुस करना चाहते हो तो,
घूम आओ हरिद्वार।



उच्श्रंखलता को दूर करने के लिये
जीवन को एक दिशा देने के लिये
थोडा बंधन जरूरी है
अपनी सीमाओं में रहने की
आदत कमजोरी नही
मजबूती की निशानी है
थोडी सी चंचलता
बहुत सारा प्यार समेटे रहती हरपल
खुद में पवित्र गंगा की धार
पाना है इसे तो।
घूम आओ हरिद्वार।


गंत्वय के प्रति ललक
मंजिल को पाने का अरमान
राह की बाधाओं को नकार
सागर से मिलने को बेकरार
हर सुख-दु;ख,मान-अपमान को
अपनाने के लिये तैयार
देखना है निर्भय विचरती गंगा का निखार तो,
घूम आओ हरिद्वार।



डगमगाते कदमों से
शाम को घर कैसे लौटता है
सुबह का भुला
देखना है तो जाओ
देख आओ लक्ष्मणझूला
श्रृंगार किसे कहते हैं और
कैसे हैं प्रकृति के विविध वेश
देखना ही है तो जाओ
घूम आओ ऋषिकेश।

















Monday 18 July 2011

माफ करना

भूल जाऊँ तुमको मैं पर
दिल मेरा तेयार नही है
भ्रम नही सच्चाई है
तुमको मुझसे प्यार नही है।

बेचैन हो जाती रह-रह कर
यादों कि अलख किसने बिखराई है ?
दुःख सिर्फ इस बात की है
तुमने धोखे से मेरे दिल में जगह बनाई है।

जिंदगी की आपाधापी में
अपनों का साया छूट गया
औरों की क्या बात
जब मेरा दिल ही मुझसे रुठ गया।

पैरों के नीचे से जमीन खिसकी है
सिर से आसमान
सूना-सूना मन प्रांगन है
सूना सारा जहाँ ।

माँ जमीन होती है गर तो
पिता आसमान
ढूँढू कहाँ कैसे मैं उनको ?
कहाँ है मेरा वो घर-द्वार ?
दो अँखियाँ किया करती थीं
बेसब्री से मेरा इंतज़ार ।

सीमेंट कंक्रीट से बने
 मकान को घर नही कहते हैं
घर उसे कहते हैं जहाँ
माँ-बाप औ बच्चे
घुल-मिल कर रहते हैं।

घर में रहता प्यार हमेशा
नही बैर न पैसा
जहाँ खुशी का मतलब होता
केवल पैसा-पैसा
घर नही वो है एक सराय के जैसा

वैसे सराय में आने की
कीमत वसूली जायेगी
जिससे मेरे आत्मसम्मान औ स्वाभिमान की
नींव दरक जायेगी
होंठों से हँसी , आँखों से नींद
चली जायेगी
माफ करना सरायवालों
तेरे दर पे मैं तो क्या
मेरी परछाई भी नही आयेगी ।

Friday 15 July 2011

पुनः

भूल कर सारे गिले शिकवे
तेरी गलती मेरी गलती
वादा का नया रस्म निभाना है
पुराने संबंधों को खत्म करें
अब संबंध नया बनाना है।
एक मोड पर क्यों खडे रहें
हरेक मोड से गुजर कर जाना है
किसी मोड पर मिले कभी थे
किसी मोड पर बिछड जाना हे
चेहरे पर दर्द को पढा नही
पढनेवाला अंधा था
सुनानेवाले का सुना नही
सुननेवाला बहरा था
अपनी-अपनी सबको पडी है
भौतिकता का ये गोरखधंधा है
संकीर्ण सीमाओं की मानसिकता से
हरेक प्राणी बँधा है
कितना भी शिकवा करं
ये दर्द न होगा कम
अनचाहे संबंधों को ढोने से
अच्छा है कि पुनः
अजनबी बन जायें हम।

Wednesday 6 July 2011

मातृत्व प्यार


बदल गई है दुनिया मेरी
सज गया मेरा घर द्वार
जब से आई तू मेरे आंगन
लेकर केवल प्यार ही प्यार
एक दिन नही एक साल नही
बरसों किया तेरा इंतजार
प्रकृति के अनूठे सृजन के
सपनों को किया तूने साकार
आँखों से नींद उडी है
कोई दुःख-दर्द नही है
दिल करता तूझे देखूँ बारम्बार
क्या यही है मातृत्व प्यार ?
छोटे-छोटे पाँव हैं तेरे
छोटी-छोटी बाहें हैं

जाते देख मुझे तूँ भरती
सचमुच ठंढी आहें है
न कोई छल-कपट है उसमें
न कोई होशियारी है




नन्हीं गुडिया सच कहती हूँ
तूँ मुझे जान से प्यारी है
सह लूँगी सभी दुःख अपने
जो भी मुझपर आयेंगे
देख तुम्हारी दुःख को बिटिया
मन ही मन कराहेंगे
सुखी रहो तुम हँसकर हर दिन
जीवन सफल बनाओ
कर्मरथ पर बैठकर एक दिन
दुनियाँ में छा जाओ ।    

Sunday 3 July 2011

सागर का दर्द


बरसों से मिलने की आस लिये बैठा हूँ
इंतजार की आग में पल-पल जला करता हूँ
ख्वाबों से तेरे,दिल को बहलाये रहता हूँ
सागर हू फिर भी, मैं प्यास लिये बैठा हूँ ।


इठलाती नदियाँ औ बलखाती तालें हैं
सतरंगी सपनों का संसार लिये फिरता हूँ
तेरे दरश को पलक बिछाये रहता हूँ
सागर हूँ फिर भी,मैं प्यास लिये बैठा हूँ।


विरह मैं पागल, दिवाना मैं घायल
सीने में अपने हलचल दबाये रखता हूँ
मौन की अनुगूँज में खुद को डूबाये रखता हूँ
सागर हूँ फिर भी, मैं प्यास लिये फिरता हूँ।


खुद का सुधबुध औ चैन गँवाये बैठा हूँ
लहरों की तरंगों में गम को छिपाये बैठा हूँ
नैंनों से अपने मैं,नींद भगाये रहता हूँ
सागर हूँ फिर भी,मैं प्यास लिये बैठा हूँ